Wednesday, September 19, 2007

रचना

जनमों से था मुझको

जिस पल का इंतज़ार

वो रचना आयी है आज
ले कर प्रेम का अवतार

तनहा था मैं प्यासा था मैं

जन्मों जन्मों कि ये प्यास

सूना था निस्तेज था
मेरे मन का आकाश

तुमने अपने प्रेम से
मेरे जीवन मे रंग भर दिए

बुझा दी मेरी अमिट प्यास

आज का ये पल

सिर्फ मेरा है और तुम्हारा है

अपनी रचना अपनी धरती

और ये वक़्त हमारा है

बस तुम हो और मैं हूँ

कोई नही है मध्य हमारे

आओ आज मिल जाएँ हम

बन कर प्रेम के धारे


तुम्हारे मुख का प्रथम शब्द

मेरे मन को आलोकित कर देता है

मेरी निशब्द नीरवता मे

नया सा कलरव भर देता है


मुझे अपनी रचना मे

नए नए रंग दिखायी देते हैं

उसकी आँखों मे सुर्य

चेहरे मे चंद्र

तो बातों मैं सृष्टी के

रहस्य सुनायी देते हैं

उसका अस्तित्त्व मुझे जीना सिखाता है

मेरे निस्तेज जीवन मे तेज भरता है

मुझे कारण देता है जीवन जीने का

और मेरी रचना को चमचमाता है

वो जब मेरी और देखती है

तो उसकी आँखों मे मुझे

आकाश नजर आता है

मेरा अस्तित्त्व इस आकाश के आगे

कहीँ खो सा जता है

मैं बूँद हूँ

वो समुद्र है

मैं खुद को खो कर

पूरा समुद्र पा लेता हूँ

अपना अस्तित्त्व मिटा कर खुद को

असीम रचना मे मिला लेता हूँ

रचना कि कोई परिधि नही

रचना कि कोई सीमा नही

ना आदि है ना अंत है

मेरी रचना अनंत है

जब मैं खुद को

रचना मे खो देता हूँ

तो मुझे भी अनंतता

असीमितता का अनुभव होता है

रचना का एक भाग बन कर

मैं उसे अपना एक भाग बना लेता हूँ

समां जाता हूँ उसमे और

उसको खुद मे समां लेता हूँ

मेरा मन तुम हो

मेरा तन तुम हो

मेरा ह्रदय तुम हो

और जीवन भी तुम हो

मेरा मन मेरा जीवन मेरी धड़कन

मेरे होने का का कारण

मेरी उमंग मेरी सोच

मेरी सारी कल्पना

बस तुम तुम तुम ही तो

मेरी रचना ...........

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